कोऊ न आयो उहाँ ते सखी री जहाँ मुरलीधर प्रान पियारे ।
याही अँदेसे मे बैठी हुती उहि देस के धावन पौरि पुकारे ।
पाती दई धरि छाती लई दरकी अँगिया उर आनँद भारे ।
पूँछन को पिय की कुसलात मनो हिय द्वार किवार उघारे ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।