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गठरी-भर,हाँ, पाप / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

यह क्या भाई
आप अधूरे सपनों के व्यापारी हैं
 
ज़रा सोचिये
इन्हें बेचकर क्या पायेंगे आप
मुट्ठी-भर सुखकी किरचें ही
गठरी-भर, हाँ, पाप
 
पहले से ही
इस बस्ती के कुएँ-ताल सब खारी हैं
 
इन्हीं अधूरे सपनों खातिर
हुए सभी अपराध
खून बहा था कल महलों में
रहा नदी को बाँध
 
और हुआ
ऐलान महल से - नदियाँ ही हत्यारी हैं
 
इन सपनों को रचा गया है
टुकड़े-टुकड़े जोड़
इन्हें भुनाने लोग जा रहे
अपने घर को छोड़
 
जो राजा थे
अपने मन के -वे भी हुए भिखारी हैं