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गर्भगृह तक / प्रेमशंकर रघुवंशी

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हवा ने पेड़ों के कान में कुछ सुरसुराया
और बजने लगे कछार
ओर छोर थिरकने लगी नदी
और फिसल चले लहरों के रुमाल हिलाते प्रपात
कोसों दूर से प्रिया-पुकार सुन
पल्लर पल्लर झूम उठा सागर
तभी धूप-दीप से महकते बादल आए
और लाद चले भाप भाप उसे
थाम लीं मशालें बिजलियों ने
और घरघराती चल पड़ी गजयात्रा आकाश से
आजकल इनकी ही पहुनाई में लगी धरती
पानी पानी है गर्भगृह तक।