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ग़मों की इस क़दर भरमार क्यों है, हम नहीं समझे / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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ग़मों की इस क़दर भरमार क्यों है, हम नहीं समझे
हुआ अनमोल जीवन भार क्यों है, हम नहीं समझे

जहाँ भर में जिधर देखो, अदावत ही अदावत है
इमारत प्यार की मिस्मार क्यों है, हम नहीं समझे

न था अफ़सोस कश्ती के भँवर में डूब जाने का
किनारा भी हुआ मँझधार क्यों है, हम नहीं समझे

उजाला क़ैद हो कर रह गया है, महल के भीतर
कुटी में आज तक अँधियार क्यों है, हम नहीं समझे

ख़ुदा के नाम की है रट, बगल में है छुरी यारा!
शराफ़त इन नया हथियार क्यों है, हम नहीं समझे

कहीं पर चाटती लोहू बदन का, भूख डायन
कहीं धन का लगा अम्बार क्यों है, हम नहीं समझे

किसी का मातमी होता, असल त्यौहार का दिन भी
किसी का हर दिवस त्यौहार क्यों है, हम नहीं समझे

अनेकों व्याधियों से ग्रस्त है बीमार आज़ादी
न हो पाता सही उपचार क्यों है, हम नहीं समझे

चमन का बाग़बां ही ख़ुद हुआ है बाग़ का दुश्मन
वतन का पासबां बटमार क्यों है, हम नहीं समझे

हुआ मुँह खोलना भी आज है अपराध में शामिल
गुनाह दुख-दर्द का इज़हार क्यों है, हम नहीं समझे

लगा हो एक भी तिनका न जिसका आशियाने में
नशेमन का वही हक़दार क्यों है, हम नहीं समझे

छलकते जाम मदिरा के कहीं, रंगीन रातों में
कहीं जीना हुआ दुश्वार क्यों है, हम नहीं समझे

नहीं कोई बड़ा-छोटा, ख़ुदा के हैं सभी बन्दे
खड़ी फिर भेद की दीवार क्यों है, हम नहीं समझे

बग़ावत पर ये आमादा कहीं आहें न हो जाएँ
हृदय के सिन्धु में ये ज्वारा क्यों है, हम नहीं समझे

‘मधुप’ है ज़िन्दगानी बुलबुला बस एक पानी का
हुआ मग़रूर ये संसार क्यों है, हम नहीं समझे