Last modified on 27 जून 2009, at 23:04

गार्गी उवाच / कविता वाचक्नवी

चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:04, 27 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''गार्गी उवाच''' ऋषि! तुम भले ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


गार्गी उवाच


ऋषि!
तुम भले ही हाँक ले जाओ सब गाय
और भले ही, तत्वदर्शी होने का
अहं तुम्हारा
रहे जीवित
पर
‘आकाश’ में गूँजते
‘तरंगों’ में लहराते
‘विद्युत’-से कौंधते
मेरे प्रश्न तो सुनते जाओ
‘शास्त्रार्थ’ से तुम न दे सकोगे
इनके उत्तर
छूट जाएगा सारा दंभ।
छोड़ दो गउएँ
मूक प्राणी हैं.....
कुछ न कहेंगी
हकाल ले जाओ भले,
किंतु मैं
रोकती हूँ तुम्हारा मार्ग,
ठहरो.........!!
प्रश्न तो सुनो, याज्ञवल्क्य!!!