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गीति-2 / अज्ञेय

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छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार,
काँप-काँप कर 'ठहरो! ठहरो!' की करती-सी करुण पुकार
किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार

मानो वन में तांडव करती मानव की पशुता साकार।
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।
जाना बहुत दूर है पागल-सी घहराती है जल-धार,
झूम-झूम कर मत्त प्रभंजन करता है भय का संचार

पर मीलित कर आँखों को तू तज दे जीवन के आधार-
ऊषा गगन में नाच रही होगी जब पहुँचेंगे उस पार!
छोड़ दे, माँझी! तू पतवार।