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गीत 9 / पाँचवाँ अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्‍गलपुरी

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योगी तन के रहतें तन से सब टा दोष दुरावै छै
वहेॅ सुखी समरथ वाला जग में योगी कहलावै छै।

नर तन ही उत्तम तन छिक
जेकरा में सुमिरन संभव,
नर तन होतें नाश जानि लेॅ
सुमिरन फेर असंभव,
काम-क्रोध अरु मोह त प्राणी हर योनी में पावै छै।

जैसे सागर में तरंग नित
आवै और नसावै,
सकल कामना वैसें ही
मन में तरंग बनि आवै,
सांख्य योगि जन हय तरंग सहजे संयत करि पावै छै।

संसारी जन सुख चाहै
सुख के रहस्य नै जानै,
सहज भ्रमित जन सकल भोग में
ही सच्चा सुख मानै,
भाँति-भाँति के करै कामना, और दुःख उपजावै छै।

भोगी जन सब टा अनर्थ के
कारण आप बनै छै,
दुख पावै अरु दोष हमेशा
ईश्वर के जे दै छै,
अपना चलतें रोग-शोक-दुख-भय अरु अपयश गावै छै।

सद् मनुष्य सपनों में नै
पशुवत आचरण करै छै,
चरण कुपथ पर धरतें
अपनों परिजन के वरजै छै,
मित्र-शत्रु के भाव त्यागि सब के गला लगावै छै
योगी तन के रहते तन से सब टा दोष नसावै छै।