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गुज़ारी ज़िन्दगी हमने भी अपनी इस क’रीने से / पवन कुमार


गुज़ारी ज़िन्दगी हमने भी अपनी इस क’रीने से
पियाला सामने रखकर किया परहेज’ पीने से

अजब ये दौर है लगते हैं दुश्मन दोस्तों जैसे
कि लहरें भी मुसलसल रब्त रखती हैं सफ़ीने से

न पूछो कैसे हमने हिज्र की रातें गुज़ारी हैं
गिरे हैं आँख से आँसू उठा है दर्द सीने से

यहां हर शख़्स बेशक भीड़ का हिस्सा ही लगता है
मगर इस भीड़ में कुछ लोग हैं अब भी नगीने से

समझता ख़ूब हूँ जा कर कोई वापस नहीं आता
मगर एक आस पर जि’न्दा हूँ मैं कितने महीने से

रहें महरूम रोटी से उगायें उम्र भर फस्लें
मज़ाक’ ऐसा भी होता है किसानों के पसीने से

कभी दर्ज़ी कभी आया, कभी हाकिम बनी है माँ
नहीं है उज्ऱ उसको कोई भी किरदार जीने से

क’रीना = सलीका/तरीका, मुसलसल = लगातार, रब्त = सम्बन्ध, सफ़ीना = नाव, हिज्र = जुदाई,
उज्र = आपत्ति