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गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया जी / शिरीष कुमार मौर्य

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प्‍यास लगने पर मिल जाता है साफ़ पानी
जतन नहीं करना पड़ता

काम से घर लौट आना होता है भटकना नहीं पड़ता
नींद आने पर बिस्‍तर मिल जाता है

चलने के लिए रास्‍ता मिल जाता है
निकलने के लिए राह

कुछ लोग हरदम शुभाकांक्षी रहते हैं
हितैषी चिंता करते हैं
हाल पूछ लेते हैं

कोई सहारा दे देता है लड़खड़ाने पर
गिर जाने पर उठा लेता है
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया

किसी के घर जाऊं तो सुविधाजनक आसन मिलता है
और गर्म चाय

जिससे चाहूं मिल सकता हूं
ख़ुशी-ख़ुशी
अपने सामाजिक एकान्‍त में रह सकता हूं
अकेला अपने आसपास
अपने लोगों से बोलता-बतियाता

अपनी नज़रों से देखता हूं और देखता रह सकता हूं
भरपूर हैरत के साथ
कि यह वैभव सम्‍भव होता है इसी लोक में

जबकि
परलोक कुछ है ही नहीं
अपने लोक में होना भी
एक सुख है
कविता और जीवन का