ग्रीष्म स्वर्णकार बना भट्टी-सा नगर बर,
घरिया-सा घर वस्त्र भूषण अंगारा-से ।
मारूत की धौंकनी प्रचंड तन फूँके देती,
उठते बगूले हैं विचित्र धूम धारा-से ।।
छार छार ही है, दम नाक में ही ला रही है,
बचना कठिन है सनेही और द्वारा से ।
आके घनश्याम जो न देंगे कहीं दर्श रस,
ताप वश पल में उड़ेंगे प्राण पारा से ।।