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घनी है रात मगर चल पड़े अकेले हैं / डी. एम मिश्र

घनी है रात मगर चल पड़े अकेले हैं
किधर से जायेंगे हर राह पर लुटेरे हैं।

हमीं नहीं ये बात आप भी समझते हैं
वही समाज का दुश्मन उसी के चर्चे हैं।

जिसे भी देखिये जनता का ख़़ून पीता है
कहीं मच्छर तो कहीं बाघ छिपे बैठे हैं।

कहीं उम्मीद की किरन नज़र नहीं आती
भले इन्सान भी नज़रें झुका के बैठे हैं।

जिन्हें अन्याय की बातों में न्याय दिखता है
वही इन्साफ़ की कुर्सी पे जमे बैठे हैं।