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छंदों का ककहरा / मनोज जैन 'मधुर'

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छंदों का
ककहरा
अभी तक,
हमने पढ़ा नहीं।
अपनी भाषा
का मुहावरा
हमने
गढ़ा नहीं।


नए क्षितिज का
नूतन चिंतन
जगा नहीं पाये।
दुरभि संधियों
से पीछा
हम छुड़ा नहीं पाये।


अभी प्रगति के
सोपानों पर ,
मन यह चढ़ा नहीं।


लीक छोड़कर
चलने वाला
साहस सोया है।
काटा हमने
जो अब तक
पहले से बोया है।


दृढ़ इच्छा के
पथ में कोई
पर्वत अढा नहीं।


ऊंचाई के गुन
गाने से क्या
होगा बोलो।
बदल रही है
पल पल दुनियां
आँखें तो खोलो।


कदम हमारा
चोटी छूने
अब तक बढ़ा नही।