Last modified on 15 अक्टूबर 2017, at 16:11

छन्दों का संजीवन ले / मनोज जैन 'मधुर'

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 15 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज जैन 'मधुर' |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब पीर पिघलती है मन की
तब गीत नया में गाता हूँ।
सम्मान मिले जब झूठे को
सच्चे के मुँह पर ताला हो।
ममता को कैद किया जाये
समता का देश निकाला हो।
सपने जब टूट बिखरते हों
तब अपना फ़र्ज़ निभाता हूँ।
छल बल जब हावी होकर के
करुणा को नाच नचाते हैं
प्रतिभा निष्कासित हो जाती
पाखंड शरण पा जाते है।
तब रोती हुई कलम को मै
चुपके से धीर बँधता हूँ।
वैभव दुत्कार गरीबी को
पगपग पर नीचा दिखलाये
जुगन उड़कर के सूरज को
जलने की विद्या सिखलाये
तब अंतर मन में करूणा की
घनघोर घटा गहराता हूँ।
जब प्रेम-सुधा रस कह कोई
विष-प्याला सम्मुख धरता है।
आशा मर्यादा निष्ठा को
जब कोई घायल करता है।
मैं छंदों का संजीवन ले
मुर्दों को रोज़ जिलाता हूँ।