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छूटी दासता नहीं / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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(धुन : निरगुन)

ओ संगी!
साथ दे कहाँ तक
दुहरी हो रही बहंगिया;
झुकती रीढ़ की धनुहिया;
बदला रास्ता नहीं!
कौन, जो बताये—किसने बोझ ये पराये,
दुखते कांध पर धरे?
--साथ-साथ ढोये हमने; पुरखों पर रोये,
सबकी किंच में गड़े.
ओ संगी,
पालकी उठाओ---
आये दूर से कहरिया;
बदला वास्ता नहीं!
जोड़ीं उम्मीदों कितनी—तोड़-तोड़ नींदें—
रेती सींचते रहे,
बेचे मवेशी मेले, होकर परदेशी,--
ठेले खींचते रहे,
ओ हटवे,
पलदारी करते—
गुजरी हाँपती उमरिया,
कुचली बाँह की मछरिया;
छूटी दासता नहीं!
माटी से कढ़ती काया, माटी से जुड़ती,--
होगी फिर-फिर माटी,
आग ले बड़े जो, जुल्मी नाग से लडे जो,
-अगली वह परिपाटी,
ओ पंचों!
बनिहारी करते
लकड़ी-सी जली जिनिगिया,
लड़ती राख से चिनिगिया;
---आँधी का पता नहीं!