Last modified on 29 जून 2014, at 11:44

जंगलिया बाबा का पुल / लक्ष्मीकान्त मुकुल

जेठ की अलसायी धूप में
जब कोई बछड़ा
भूल जाता है अपना चारागाह
तो जम्हाई लेने को मुंह उठाते ही
उसे दिख जाता है
सपफेद हंस-सा धुला हुआ
हवा में तैरता जंगलिया बाबा का पुल
दादी अक्सर ही कहा करतीं
कि उनके आने के पूर्व ही
बलुअट हो गयी थी यह नदी
और धीरे-धीरे छितराता हुआ जंगल भी
सरकता गया क्षितिज की ओट में
स्मृति शेष बना यह पुल
कारामात नहीं है मात्रा
जिसकी पीठ पर पैरों को अपने
ओकाचते हुए हम
भारी थका-मांदा चेहरा लिए
लौट आते हैं अपने सीलन भरे कमरे में
जब कभी उबलती है नदी
तो कई बित्ता उपर उठ जाता है यह पुल
और देखते-देखते
उड़ते-घुमड़ते बादलों के बीच जा
चीखने लगता है
क्या सुनी है आपने
किसी पुल के चीखने की आवाज?
कौंध्ती चीख
जो कानों में पड़ते ही
चदरें पफाड़ देती है
यह मिली-जुली चीख
है बंधुओं
जो हरे-भरे खेत को महाजन के हाथों
रेहन रखते हुए किसान की
और नेपथ्य की घंटी बजते ही
दरक जाते जीवन-मूल्यों की होती है।