जगमगी कचुँकी पसीजी स्वेद सीकरनि ,
डगमगी डग न सभाँरी सभँरति है ।
रँगपाल सरबती साड़ी की सलोट कल ,
कँपित करन न सवाँरी सँवरति है ।
बिलुलित बर बँक बार पीक लीक वारी ,
झपकीली पल न उघारी उघरति है ।
प्यारी की उनीँदी वा अटारी उतरनि ,
आज चढ़ि रही चित्त न उतारी उतरति है ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।