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जड़ें जमती नहीं / रश्मि शर्मा

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जड़ें कहीं जमती नहीं
तो पीछे कुछ भी नहीं छूटता
ज़िंदगी ख़ानाबदोश सी
रही अब तक
जब तक रहे, वहीं के हुए
फिर कहीं के नहीं हुए

लगता है इस बार
जड़ें जम गईं हैं गहरे तक
कष्ट होता है
निकलने में, बढ़ने में
छूटने का अहसास
लौटा लाता है बार-बार
जंगल सी खामोशी
महसूस होती है
कई बार आसपास
रात विचरते किसी पक्षी
की तरह
कोई चीख़ उठता है
मैं हूँ, रहूँगा, हाँ ....रहूँगा
मोमबत्ती की लौ
थरथरा उठती है कमरे में
फीकी चाँदनी में
सरसराते हैं चीड़ के पत्ते
कोई जाता दिखता है
उसी क्षण लौटता भी
एक दर्द उभरता है
जो आनंद में भी उपजा था
जो पीड़ा में भी है
यह जम जाने का दर्द है
किसी के भीतर
उतरने का आनंद है
कौन बाँध गया खूँटे से
जिसे भुलाना है
वो और याद आता है
जो याद रहता है हर पल
उसे भूल जाने की ख़्वाहिश है
कौन आवाज़ देता है
जाने क्या-क्या छूटता सा लगता है।