भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी अब भार-सी लगने लगी है / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:51, 17 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महावीर प्रसाद 'मधुप' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ज़िन्दगी अब भार-सी लगने लगी है
चाँदनी अंगार-सी लगने लगी है
हाथ में थामें रहूँ पतवार कब तक
हर लहर मँझधार-सी लगने लगी है
रूप ने इतना छला भावुक हृदय को
हर कली अब ख़ार-सी लगने लगी है
मुश्क़िलों ने इर क़दर मन को भ्रमाया
जीत भी अब हार-सी लगने लगी है
बन गए बहुरूपियें जब से उजाले
रौशनी अंधियार-सी लगने लगी है
तुम गए हो छोड़कर जब से अकेला
वेदना साकार सी लगने लगी है
पास जाकर भी न उनको पा सके हम
बेबसी दीवार सी लगने लगी है
राह तकते आँख पथराई कि अब तो
याद कारागार सी लगने लगी है
हो ‘मधुप’ अब रोग का उपचार कैसे
जब सुधा विषधार सी लगने लगी है