Last modified on 18 अप्रैल 2018, at 04:59

ज़िन्दा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िन्दगी नहीं / बेहज़ाद लखनवी

ज़िन्दा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िन्दगी नहीं
जलता हुआ दिया हूँ मगर रोशनी नहीं

वो मुद्दतें हुईं हैं किसी से जुदा हुए
लेकिन ये दिल की आग अभी तक बुझी नहीं

आने को आ चुका था किनारा भी सामने
खुद उसके पास ही मेरी नैय्या गई नहीं

होंठों के पास आए हँसी, क्या मज़ाल है
दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं

ये चाँद, ये हवा, ये फ़िज़ा, सब हैं मद-मस्त
जो तू नहीं तो इन में कोई दिलकशी नहीं