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जाना तो बहुत दूर है महताब के आगे / आलम खुर्शीद

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जाना तो बहुत दूर है महताब<ref>चन्दमा, चाँद</ref> के आगे
बढ़ते ही नहीं पाँव तिरे ख़्वाब से आगे

कुछ और हसीं मोड़ थे रूदाद-ए-सफ़र<ref>यात्रा का विवरण/ वृतांत</ref> में
लिक्खा न मगर कुछ भी तिरे बाब <ref>किताब का अध्याय</ref> से आगे

तहज़ीब की ज़ंजीर में उलझा रहा मैं भी
तू भी न बढ़ा जिस्म के आदाब<ref>सभ्यता</ref> से आगे

मोती के ख़ज़ाने भी तह-ए-आब<ref>पानी के अंदर</ref>छुपे थे
निकला न कोई ख़तरा-ए-गिर्दाब<ref>पानी के भंवर का ख़तरा</ref> से आगे

देखो तो कभी दश्त<ref>जंगल</ref> भी आबाद है कैसा
निकलो तो ज़रा ख़ित्ता-ए-शादाब<ref>हरा भरा इलाका</ref> से आगे

बिछड़ा तो नहीं कोई तुम्हारा भी सफ़र में
क्यूँ भागे चले जाते हो बेताब से आगे

दुनिया का चलन देख के लगता तो यही है
अब कुछ भी नहीं आलम-ए-असबाब<ref>जहाँ हर कार्य के लिए कुछ कारण अवश्य हो</ref> से आगे

शब्दार्थ
<references/>