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जाने क्या सोच के रख्खी है ये दूरी उसने / अर्पित शर्मा 'अर्पित'

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जाने क्या सोच के रख्खी है ये दूरी उसने
मुझको एक बार भी आवाज़ नहीं दी उसने

एक मुद्दत से समझता रहा मैं जिसको रक़ीब
आपके नाम से ये ख़त भी दिया जी उसने

हिचकिया लेती रही याद मुझे करती रही
रात भर बात तो तन्हाई में है की उसने

साग़रे मय से भी बढ़ कर है मोहब्बत की शराब
रख दिया जाम को फिर आँखों से है पी उसने

उसने तन्हाई का रातो को दिया मेरी अज़ाब
जाने किस जुर्म की मुझको ये सज़ा दी उसने

बन गया सारा ही घर रश्के चमन रश्के बहार
आपके नाम से जब मेहंदी रचा ली उसने

चाहता था वो किसी और को भी मेरी तरह
मुझको ये बात बताई न कभी भी उसने

बहुत उदास था वो मुझसे जब कभी भी मिला
ऐसी क्या बात थी जो मुझसे छुपाई उसने

एक मुद्दत से पड़ा सोच रहा हूँ "अर्पित"
जाने क्या बात थी जो मुझ से कही थी उसने