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जुल्मत की धूप में पाँव जलते रहे मौला / कबीर शुक्ला

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ज़ुल्मत की धुप से पाँव जलते रहे मौला।
साया तेरी रहमत का तलाशते रहे मौला।
 
मालूम था बंदगी से ज़िन्दगी नहीं मिलती,
ख़त्ब देखो हम बंदगी करते रहे मौला।
 
वज़हे-शिकस्तगी थी ख़ामोशी उफ़्तादगी,
ग़म-ए-शिकस्त साकित सहते रहे मौला।
 
सबाते-उमीद-ख़लूश मुबहम थी लेकिन,
चरागे-एतबार-ए-ख़ुदा जलते रहे मौला।
 
तुर्फगी-ए-जुनूँ मू-ब-मू परिंदे मानिंद थी,
साँस-दर-साँस हम जुनूँ भरते रहे मौला।
 
यकीं था कि मिलेगी मंजिल-ए-तस्कीन,
तसव्वुर-ए-उफ़क में रत उड़ते रहे मौला।
 
ख़ुफ़्ता सरमाए में किसपे एतबार करते,
ग़ाम-दर-ग़ाम सजदे में झुकते रहे मौला।