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जैसी रोटी हम खाते हैं / डी. एम. मिश्र
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07:25, 16 नवम्बर 2020
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<poem>
जैसी रोटी हम खाते हैं
वैसी ही ग़ज़लें गाते हैं
कथरी गुदरी के बिस्तर में
क्या ख़्वाब सुहाने आते हैं
तब धनिया भी अप्सरा लगे
जब बाहों में खो जाते हैं
जो पैसा स्वाभिमान ले ले
हम उसमें आग लगाते हैं
मत ऐसे ख़्वाब दिखाओ ,हम
पानी -पानी हो जाते हैं
तुम छंद - बहर साधेा अपनी
हम अपनी व्यथा सुनाते हैं
दुख पीछा करता रहता है
हम आगे बढ़ते जाते हैं
</poem>
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