जो चाहे अचल औवात हो अपने पिया से प्रीतिकर।
जो लो मन विभिचार में हो तो लो मन में त्रास।
अपने को चीनी नहीं अंतहि भई निरास हो।
जैसे रंग पतंग को विभाचारी को हेत।
दिना चार झलकी लगो फिर कड़ आयो सेत हो।
भौसागर भारी नदी बहुत खरेरी धार,
ओट गह्यो निज नाम की बानी शबद समार हो।
प्रीति पलक बिछुरे नहिं नहिं मन होत अडोल हो।
जूड़ी कहत पुकार कें फिर नहीं तोरो मोल हो।