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तुम्हारे गीत गाना चाहता हूँ / बलबीर सिंह 'रंग'

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चाहता हूँ मैं तुम्हारी दृष्टि का केवल इशारा,
डूबने को बहुत होता एक तिनके का सहारा,
उर-उदधि में प्यार का तूफ़ान आना चाहता है।
आज मेरा मन तुम्हारे गीत गाना चाहता है।

चाहते थक कर दिवाकर-चँद्र नभ का शाँत कोना,
सह सकेगी अब न वृद्धा भूमि सब का भार ढोना,
जीर्ण जग फिर से नई दुनिया बसाना चाहता है।
आज मेरा मन तुम्हारे गीत गाना चाहता है।

एक योगी चाहता है बाँधना गतिविधि समय की,
एक संयोगी भुलाना चाहता चिंता प्रलय की,
पर वियोगी आग, पानी में लगाना चाहता है।
आज मेरा मन तुम्हारे गीत गाना चाहता है।

व्यंग्य करता है मनुजता पर मनुज का क्षुद्र-जीवन,
हँस रहा मुझ जवानी की उमंगों का लड़कपन,
किंतु कोई साथ मेरे मुस्कुराना चाहता है।
आज मेरा मन तुम्हारे गीत गाना चाहता है।

स्वर्ग लज्जित हो रहा है नर्क की लखकर विषमता,
आज सुख भी रो रहा है देखकर दुख की विवशता,
इंद्र का आसन तभी तो डगमगाना चाहता है।
आज मेरा मन तुम्हारे गीत गाना चाहता है।