Last modified on 18 दिसम्बर 2014, at 20:13

तुम धरती-आकाश हो / नीलोत्पल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:13, 18 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलोत्पल |अनुवादक= |संग्रह=पृथ्वी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम्हें बार-बार याद करता हूँ
भूल जाता हूँ कि
ऐसा करने से तुम्हें ऐतराज़ भी हो सकता है

यह घने अंधकार की तरह है
लेकिन तुम ही छाँटती हो बादल

जब तुम्हें उदास देखता हूँ
पिघलते शाीशे की तरह ढल जाने को
तैयार रहता हूँ
तुम चाहो उतार सकती हो मुझे
अपनी इच्छाओं के लिए
किसी भी रूप में

तुम्हें कविता की तरह लिखना संभव नहीं
यह पैमाना है
उंगलियों के भीतर कसमसाते रहने का

तुम ऐसी बेचैनी हो जो
छूटती नहीं आदि से अंत तक
मिट्टी की तरह प्रवेश करती हो
अपनी जड़ें भीतर फैलाती हुई

तुम धरती-आकाश हो
हड़बड़ी में तुम्हें छूता हूँ
ठहर नहीं पाता थोड़ी देर से ज़्यादा
उन पत्तों पर
जिन पर ठहरना चाहती हैं बारिश की बूँदें

मिट्टी में दबे हुए
बीज की प्रतीक्षा को जीना चाहता हूँ

तुम्हें बार-बार याद करता हूँ