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दरारें / एम. कमल / सरिता शर्मा

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दुनिया छोटी हो गयी है
आदमी बड़ा हो गया है
घर के आंगन में जलाई फुलझड़ी की रौशनी
गली में चमकती है
गली में जलाए पटाखों की आवाज
शहर में गूँजती है
शहर में फटे बम की आवाज
इलाक़े में सुनाई देती है
देश में हुए धमाके की आवाज
सारी दुनिया में गूँजती है

आदमी बड़ा हो गया है
आज
इसका दिमाग बड़ा और दिल छोटा हो गया है
यह सोचता कुछ और है
करता कुछ और है
इरादे और कर्म में दरारें हैं
यह चलता एक तरफ़ है
बढ़ता दूसरी ओर है
मंजिल और राह में दरारें हैं
यह देखता एक ओर है
नज़र दूसरी ओर है
नज़र और नज़रों में दरारें हैं
इसका दायाँ हाथ जोड़ना चाहता है
और बायाँ तोड़ना
इसका एक पैर बचाने को बढ़ता है
तो दूसरा कुचलने को उठता है
इसकी जबां-एक बात कहती है
लेकिन शब्दों का अर्थ दूसरा है
आज इसके हर अंग में दरारें हैं
सम्पूर्ण होने के नक़ाब में
यह दरारों का पुंज है
किसी युग में यह पूर्ण रहा होगा
मगर आज छोटी दुनिया का बड़ा आदमी
दरारों से भरा है.