दर्द के दस्तावेज़ को
सहेजकर रखने वाले
मेरे दलित कवि
भारतीय काव्य-जगत
जाग रहा है आपके रूप में
जंज़ीरें तोड़ने के लिए
थक मत जाना
भले ही डंक मारते रहें बिच्छू
कभी-कभी रोगी भी
दर्द बन जाता है चिकित्सक के लिए
किन्तु उपचार नहीं त्यागता वह
काश मुझे भी
अपने आदम से मिल जाए त्रिशूल
तो चुभाता रहूँ प्रतिकूलता पर
और निकालता भी रहूँ
नंगे पाँवों में चुभे शूलों को
हालाँकि
फ़र्क़ दिखाई नहीं पड़ता
आदमी और गैंडे की चमड़ी में।