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धूप नंगे पाँव लौटी / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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नदी सूखी
और प्यासे टापुओं पर नाव लौटी

रेत में लेटे हुए हैं
शंख भोले
सीपियाँ चुप
कौन इनका भेद खोले

तचे तट पर धूप नंगे पाँव लौटी

जोहते हैं बाट
मिटटी के घरौंदे
किस गुफा में छिपे
पानी के मसौदे

परी-घर में प्रेत-वन की छाँव लौटी

लाल-पीली
पत्तियों के ढेर ऊँचे
आह भरते
शहर भर के गली-कूचे

और मुँहझौंसी हवा फिर गाँव लौटी