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नए बरस में मेरी कविता भी शायद बोलेगी / संजय तिवारी

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सपनों का श्रृंगार कभी साकार हो नही पाया
जीवन का आधार कभी स्वीकार हो नही पाया
अजब पहेली जन्म मिला क्यो सोच नही पाता हूँ
काजल कोर कल्पना का आकार हो नही पाया।

नई किरण से पूछ रहा हूँ, जाने क्या बोलेगी
उत्तर देगी या फिर कोई दर्दपरत खोलेगी
जाने दो प्रश्नों का कोई अंत नही होता है
नए बरस में मेरी कविता भी शायद बोलेगी।

मानस में जो बसी उसी के लिए सदा गाऊंगा
दुत्कारे या ठुकराए बस उसी लिए लाऊंगा
शब्द खोजने निकला हूँ,अब लेकर ही लौटूंगा
डगर यही है यहीं चलूँगा, कही नही जाऊंगा।