Last modified on 3 अप्रैल 2014, at 16:34

नहीं एक भी सद्‌‌गुण मुझमें / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:34, 3 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

नहीं एक भी सद्‌‌गुण मुझमें, नहीं प्रेम का किंचित्‌‌ लेश।
भरा हृदय अगणित दोषों से, रस, विरहित, कलुषित सविशेष॥
लेती रही सदा सुख तुमसे मैं नित नव-नव अतुल अपार।
दे न सकी मैं कभी तुम्हें सुख-कण क्षणभर, हे परमोदार!
रोती रही सदा इस दुखसे, रोती नित्य रहूँगी, श्याम!
कभी देख तव मलिन चन्द्र-मुख बरबस लूँगी आँसू थाम॥
सुखी देखना तुम्हें चाहती, नित्य प्रफ्फुल्लित मुख सुख-सार।
इसीलिये दुख से रोती भी, करती मैं सब सुख स्वीकार॥