Last modified on 7 मई 2019, at 11:34

नासदीय सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 129 / 1 / कुमार मुकुल

Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:34, 7 मई 2019 का अवतरण (' {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार मुकुल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ओह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ओह घरी
असत् ना रहे
सतो ना रहे
तीनों लोको ना रहे
अंतरिक्षो ना रहे
आउर ओकरा पारो
कुछो ना रहे
ताह घरी
सबके ढके वला
आप: तत्‍व
जलो
कहां रहे ॥1॥

नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥1॥