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निर्गुण के दृग आज सजल क्यों / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

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निर्गुण के हिय की धड़कन में
लय बन गूंज रहा प्रतिपल क्यों

किसने सुधि का दीप जलाया
सुलग उठी निर्गुण की माया
निर्गुण की सूनी सांसों में

आज न जाने यह हलचल क्यों
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों

निर्गुण के स्वर में क्यों अंबर
रोता है बिरही-सा झर-झर
निर्गुण के प्राणों की ‘लौ’ में
पिघल रहा है आज अनल क्यों
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों

चिर से निर्गुण रहा अकेला
किसके आज मिलन की वेला
धरती को भर कर आंखों में

निर्गुण की कल्पना विकल क्यों
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों