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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
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कविता बन शैल-महाकवि के
:::उर से मैं तभी अनजान झरी।
 
हरिणी-शिशु ने निज लास दिया,
‘पी कहाँ’ कह प्रेमी पपीहरे ने
:::सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना।
 
गति-रोध किया गिरि ने, पर, मैं
गिरि-शृंग से कूद पड़ी मैं अभय
:::‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई।
 
वनभूमि ने दूब के अंचल में
जगती को हरी लख मैंने हरी-हरी
:::दूबों का ही परिधान लिया।
 
 
तट की हिमराशि की आरसी में
उनमाद की रागिनी, बेकली की
:::अपनी ही मैं आप कहानी हुई।
 
जननी-धरणी मुझे गोद लिये
सिकता-से पिपासित विश्व के कंठ में
:::स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई।
 
वनदेवी! द्रुमांचल श्याम हिला
जननी धरणी! तिरछी हो जरा,
:::अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे।
 
अभिसारिका मैं मिलने हूँ चली,
१९३३
 
 
 
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