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<poem>
सच- पीड़ा से कराहते पहाड़ों का
रोती नदियों-सिसकती घाटियों का दर्द-
खेतों से पेट न भरने का
बर्तनों-गागरों के प्यासे रहने का
जानकर भी अनजाना-सा बैठा है
न जाने वह किस बात पर ऐंठा है?
 
सच- सर्दी में धधकते वनों का
बिना रोपे ही सूखे उपवनों का
खाली होते पंचायती स्कूलों का
सूखते झरनों गुम बुराँस फूलों का,
 
जानकर भी अनजाना सा बैठा है
न जाने वह किस बात पर ऐंठा है?
 
सच- पहाड़ी घरों के खाली होने का
वीरान आँगन वानर-राज होने का
जाल बुनती सड़कों के नारों का
बिकते मूल्यों, बिकते झूठे वादों का
 
जानकर भी अनजाना-सा बैठा है
न जाने वह किस बात पर ऐंठा है? 
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