Last modified on 21 मार्च 2017, at 10:51

पराए हो गए / देवेंद्रकुमार

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:51, 21 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेंद्रकुमार |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

परदेस गए
पराए हो गए
यों सहमे खड़े हो
आओ, चले आओ!
देखो कुछ नहीं बदला
यह घर, ये दीवारें
तुलसी का चौरा
कोने में लटका घोंसले का खंडहर,
अंदर अम्मां
सुमरिनी, खड़ाऊं फूल चढ़ी
वह कोना तुम्हारा
उसी तरह।

बाहर नीम तले भोलू चा वाला
रिक्शा स्टैंड वही टुटहा
मक्खियां बेख़ौफ पुरानेपन से।
हां, उस कोठरी में
खेलते थे लुकाछिपी
पिटे और लड़े
अब बंद है बचपन-
आओ खोलें!
अब छोड़ो भी
तुम्हीं कौन वही रह गए हो
चले ही आओ
मिलकर फाड़ते रहें
पुरानी चिट्ठियां
गीलापन बिना पोंछे हुए