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पावस गान / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

रिमझिम-रिमझिम बरस रहे मेघा वानीर-विजन के आसपास।
मधु की निर्झरिणी-सी मादक बहती रहती अल्हड़ बतास।
सावन का पावन प्रणय-मास!

चपला-सा चमक-चमक उठता दिग्वधुओं का अरविंद-हास।
उत्सुक हो प्यार-पगी उर्वी जा बैठी गिरि के पास-पास।
मनभावन पावन प्रणय-मास!

वन-वन में गिरि बालाओं का नवयौवन का कल-कल हुलास।
जिनमें बिंबित होता रहता पावस-परियों का केश-पाश।
यौवन का पावन प्रणय-मास!

ये वल्लरियाँ उच्छ्वसित, हरित : क्यों फूल-फूल भरती उसांस?
क्यों जाग उठी इन बाष्पाकुल वन-कन्याओं की मूक प्यास?
पुलकों का पावन प्रणय-मास!

इन श्यामल उज्ज्वल मेघों-सा ही मेरे प्राणों का प्रवास।
सूनी संध्या वंचित रजनी की अश्रु-विनिर्मित श्वास-श्वास।
सावन का पावन प्रणय-मास!