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पुण्य शेष नहीं है / शरद कोकास

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जीवन के ठंडे होते हुए तन्दूर में
सिंकती हुई रोटी पर
हावी होने लगती है
स्वर्ग पाने की अतृप्त इच्छा
राख की शक्ल में
 
उदर और दिमाग़ के बीच में
त्रिशंकु बनकर
उलटी लटक रही होती है
मोक्ष की अवधारणा
 
दुनियादारी के
खोखले अनुभवों से भरे
परिपक्व मस्तिष्क में
फफून्द की तरह ऊगने लगती है
तीर्थयात्रा की इच्छा
 
ज्ञात होता है अचानक
उम्र भर संचय के बावज़ूद
परलोक सिधारने के लिये
आत्मा के अधिकोष में
पर्याप्त पुण्य शेष नहीं है।