पौढ़ि कै किवारे देत घरै सबै गारी देत ,
साधुन को दोष देत प्रीति ना चलति हैँ ।
मांगन को ज्वाब देत बाल कहे रोय देत ,
लेत देत भाँजी देत ऎसे निबहति हैँ ।
बागेहू के बँद देत बाँहन की गाँठ देत ,
पर्दन की काँछा देत काम मे रहति हैं ।
येते पे सबैई कहैँ लाला कछु देत नाहिँ ,
लालाजी तो आठोँ याम देत ही रहति हैँ ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।