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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - ६

असेत-रक्तानन-वान ऊधमी।
प्रलम्ब-लांगूल विभिन्न-लोम के।
कहीं महा-चंचल क्रूर कौशली।
असंख्य-शाखा-मृग का समूह था॥101॥

कहीं गठीले-अरने अनेक थे।
स-शंक भूरे-शशकादि थे कहीं।
बड़े-घने निर्जन-वन्य-भूमि में।
विचित्र-चीते चल-चक्षु थे कहीं॥102॥

सुहावने पीवर-ग्रीव साहसी।
प्रमत्त-गामी पृथुलांग-गौरवी।
वनस्थली मध्य विशाल-बैल थे।
बड़े-बली उन्नत-वक्ष विक्रमी॥103॥

दयावती पुण्य भरी पयोमयी।
सु-आनना सौम्य-दृगी समोदरा।
वनान्त में थीं सुरभी सुशोभिता।
सधी सवत्सा-सरलातिसुन्दरी॥104॥

अतीव-प्यारे मृदुता-सुमूर्ति से।
नितान्त-भोले चपलांग ऊधमी।
वनान्त में थे बहु वत्स कूदते।
लुभावने कोमल-काय कौतुकी॥105॥

बसन्ततिलका छन्द

जो राज पंथ वन-भूतल में बना था।
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे।
ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी॥106॥

वंशस्थ छन्द

परन्तु वे पादप में प्रसून में।
फलों दलों वेलि-लता समूह में।
सरोवरों में सरि में सु-मेरु में।
खगों मृगों में वन में निकुंज में॥107॥

बसी हुई एक निगूढ़-खिन्नता।
विलोकते थे निज-सूक्ष्म-दृष्टि से।
शनै: शनै: जो बहु गुप्त रीति से।
रही बढ़ाती उर की विरक्ति को॥108॥

प्रशस्त शाखा तरु-वृन्द की उन्हें।
प्रतीत होती उस हस्त तुल्य थी।
स-कामना जो नभ ओर हो उठा।
विपन्न-पाता-परमेश के लिए॥109॥

कलिन्दजा के सु-प्रवाह की छटा।
विहंग-क्रीड़ा कल नाद-माधुरी।
उन्हें बनाती न अतीव मुग्ध थी।
ललामता-कुंज-लता-वितान की॥110॥

सरोवरों की सुषमा स-कंजता।
सु-मेरु औ निर्झर आदि रम्यता।
न थी यथातथ्य उन्हें विमोहती।
अनन्त-सौन्दर्य्य-मयी वनस्थली॥111॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

कोई-कोई विटप फल थे बारहो मास लाते।
ऑंखों द्वारा असमय फले देख ऐसे द्रुमों को।
ऊधो होते भ्रम पतित थे किन्तु तत्काल ही वे।
शंकाओं को स्व-मति बल औ ज्ञान से थे हटाते॥112॥

वंशस्थ छन्द

उसी दिशा से जिस ओर दृष्टि थी।
विलोक आता रथ में स-सारथी।
किसी किरीटी पट-पीत-गौरवी।
सु-कुण्डली श्यामल-काय पान्थ को॥113॥

अतीव-उत्कण्ठित ग्वालबाल हो।
स-वेग जाते रथ के समीप थे।
परन्तु होते अति ही मलीन थे।
न देखते थे जब वे मुकुन्द को॥114॥

अनेक गायें तृण त्याग दौड़ती।
सवत्स जाती वर-यान पास थीं।
परन्तु पाती जब थीं न श्याम को।
विषादिता हो पड़ती नितान्त थीं॥115॥

अनेक-गायों बहु-गोप-बाल की।
विलोक ऐसी करुणामयी-दशा।
बड़े-सुधी-ऊद्धव चित्त मध्य भी।
स-खेद थी अंकुरिता अधीरता॥116॥

समीप ज्यों ज्यों हरि-बंधु यान के।
सगोष्ठ था गोकुल ग्राम आ रहा।
उन्हें दिखाता निज-गूढ़ रूप था।
विषाद त्यों-त्यों बहु-मुर्ति-मन्त हो॥117॥

दिनान्त था थे दिननाथ डूबते।
स-धेनू आते गृह ग्वाल-बाल थे।
दिगन्त में गोरज थी विराजिता।
विषाण नाना बजते स-वेणु थे॥118॥

खड़े हुए थे पथ गोप देखते।
स्वकीय-नाना-पशु-वृन्द का कहीं।
कहीं उन्हें थे गृह-मध्य बाँधते।
बुला-बुला प्यार उपेत कंठ से॥119॥

घड़े लिये कामिनियाँ, कुमारियाँ।
अनेक-कूपों पर थीं सुशोभिता।
पधारती जो जल ले स्व-गेह थीं।
बजा-बजा के निज नूपुरादि को॥120॥