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प्रीति है प्रीतम ही को अंग / स्वामी सनातनदेव

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राग श्री, आढ़ चौताल 10.9.1974

प्रीति है प्रीतम ही को अंग।
चिदानन्द-अम्बुधि हैं प्रीतम, प्रीति पुनीत तरंग॥
प्रीतम की कल<ref>कलित, सुन्दर</ref> केलिमाल<ref>केलि-कलाप</ref> सब होत प्रीतिके संग।
प्रीतम और प्रीति की क्रीडा ही है रास अभंग॥1॥
प्राननाथ मनमोहन प्रीतम प्रिया प्रीति के संग-
करहि केलि-क्रीडा अनपायिनि जद्यपि सदा असंग॥2॥
हैं रसराज स्याम रससागर, तिनकी भाव-तरंग-
महाभाव-मूरति श्री राधा करहिं सतत रस-रंग॥3॥
चिद्विलास है केलि दोउन की, दोउ रस-रूप अभंग।
तिन में रसिक मीनवत् क्रीडहिं, ह्वै तिनही के अंग॥4॥
या ही रस-क्रीडा में बूड़े उनके अंग-उमंग।
भासत कोउ न अग-जग जब यह दृष्टि रँगै या रंग॥5॥

शब्दार्थ
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