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बस एक बार / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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क्या मिलते रहेंगे यूँ ही
सीढ़ियाँ चढ़ते
सीढ़ियाँ उतरते
आते-जाते गलियारों में
आमने-सामने होने पर
गुरुत्वाकर्षण से बंधे मुस्कराते हैं
बिना छुए एक-दूसरे को
अलविदा कह उस क्षण को
विपरीत ध्रुवों से
अपने-अपने रास्तों पर
छिटक जाते हैं
कब तक
इस झरती हुई हँसी को पीता रहूँगा?
कब तक इन कच्ची-कच्ची
सफेद आँखों के आकर्षण में
निर्दोष छलकती-छलकती
कामनओं को सहेजता रहूँगा?
हर बार एक परत लिपटती है
हर बार एक परत उतरती है
कोई और रास्ता नहीं
चल दूँ जिस पर, इसे छोड़कर
हर बार, बार-बार
वही जीवन
वही दाना-पानी
वही आकांक्षाओं के ज्वार
वही एक छोटी-सी नाव
तूफानों में थपेड़े खाती
एक जीवन में कितने जीवन
फिर भी अधूरे अतृप्त क्षण
पात्र भरने में नहीं आता
रीता का रीता
एक क्षण के साक्षात्कार से क्या होगा?
बार-बार से भी क्या होगा?
वर्ष के सभी दिनों से भी क्या होगा?
मिलें तो इस तरह
चाहे एक बार ही
कि महाविस्फोट हो
धूल-धूसर हो जाएँ
शरीर, मन, प्राण।