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बिसाते-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा-ख़ूं वो भी / ग़ालिब

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बिसाते-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा-ख़ूं वो भी
सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूं वह भी

रहे उस शोख़ से आज़ुदो हम चंदे तकल्लुफ़ से
तकल्लुफ़ बर-तरफ़ था एक अंदाज़-ए जुनूं वह भी

ख़याल-ए-मर्ग कब तस्कीं दिल-ए आज़ुर्दा को बख्शे
मिरे दाम-ए-तमन्ना में है इक सैद-ए-ज़बूं वह भी

न करता काश नाला मुझ को कया मालूम था हमदम
कि होगा बाइस-ए-अफ़ज़ाइश-ए-दरद-ए-दरूं वह भी

न इतना बुरिश-ए-तेग़-ए-जफ़ा पर नाज़ फ़रमाओ
मिरे दरया-ए बे-ताबी में है इक मौज-ए ख़ूं वह भी

मय-ए-इशरत की ख़वाहिश साक़ी-ए गरदूं से कया कीजे
लिये बैठा है इक दो चार जाम-ए-वाज़-गूं वह भी

मिरे दिल में है ग़ालिब शौक़-ए-वस्ल ओ शिकवा-ए हिजरां
ख़ुदा वह दिन करे जो उस से मैं यह भी कहूं वह भी