Last modified on 16 अगस्त 2013, at 20:05

मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं / रजब अली बेग 'सुरूर'

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:05, 16 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रजब अली बेग 'सुरूर' }} {{KKCatGhazal}} <poem> मरीज...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं
अगरचे सुब्ह को ये बच गय तो शाम नहीं

रखो या न रखो मरहम उस पे हम समझे
हमारे ज़ख़्म-ए-जुदाई को इल्तियाम नहीं

जिगर कहीं है कहीं दिल कहीं हैं होश ओ हवास
फ़क़त जुदाई में इस घर का इंतिज़ाम नहीं

कोई तो वहशी है कहता है कोई है दीवाना
बुतों के इश्क़ में अपना कुछ एक नाम नहीं

सहर जहाँ हुई फिर शाम वाँ नहीं होती
बसान-ए-उम्र-ए-रवाँ अपना इक मक़ाम नहीं

किया जो वादा-ए-शब उस ने दिन पहाड़ हुआ
ये देखियो मिरी शामत कि होती शाम नहीं

वही उठाए मुझे जिस ने मुझ को क़त्ल किया
कि बेहतर इस से मिर ख़ूँ का इंतिक़ाम नहीं

उठाया दाग़-ए-गुल अफ़सोस तुम ने दिल पे ‘सुरूर’
मैं तुम से कहता था गुलशन को कुछ क़याम नहीं