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महान पीड़ाओं का मर्म समझते ! / मुकेश निर्विकार

जी हाँ!
मैं एक बड़ा कवि हूँ-‘धूमिल’ की तरह,
साहित्यकार हूँ-‘मटियानी’ की तरह,
महाकवि ‘निराला’ के ही जैसा
‘जयशंकर प्रसाद’ से तनिक भी नहीं कम,
सुमित्रानन्दन पंत के ही ढर्रे पर
‘चार्ल्स लैंब’ से मिलता-जुलता
‘प्रेमचंद’ की लेकर दिल में पीड़ा गरीबों की
महान हूँ-‘गुरुजी गोलवलकर’ के समान,
‘परमहंस’ जैसा तत्त्वज्ञान लिए!

सुबूत?....
हैं तो सही मेरे शरीर में देख लो
मेरे सिर का ट्यूमर, गांठ, अवरुद्ध पानी’
‘धूमिल’, ‘मटियानी’ तथा शरतचंद्र वाले ही
सिर-दर्द की कहानी
मेरे पेट का उभार ‘निराला’ का ही जलोदर है
मारी टी.बी. ‘जयशंकर प्रसाद’ की
अविवाहित हूँ मैं ‘सुमित्रानंदन पंत’ की तरह
और ‘लैंब’ की तरह संस्मरण लिखता
प्रेमचंद के पात्रों की पीड़ा लेकर
जीने की कोशिश करता
गुरुजी गोलवलकर व परमहंस के
अपने सिर के चक्कर व गले के क़ैसर में!

क्या ये सुबूत
पर्याप्त नहीं हैं
इन महान पुरुषों की
महान पीड़ाओं का मर्म
अपने शरीर पर समझते हुए
या अभी भी शंका है तुम्हें
मुझ पर और मेरी महानता पर?