Last modified on 15 अप्रैल 2018, at 11:57

मानव फिर गढ़ेगा खुद को / हेमा पाण्डेय

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:57, 15 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमा पाण्डेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इन्सान का अपना
प्रिय संगीत टूट रहा है।
वह अलग हो रहा है,
अपने लोगो और प्रकृति से।
खो रहा है निजी एकांत,
रात का खामोश अँधेरा भी।
कहाँ है वह जीवन
जिसे हमने खो दिया।
जीवन जीने में ही
 जीवन को पाना है।
अपनी पूरी ताकत
अमेध जिजीविषा।
ज़िंदा है अथाह
 गरीमा के साथ।
ऐसे चौराहे पर है खड़ा
आज का इन्सान।
उसके आगे का रास्ता
गुजरता है अंधेरी सुरंग से।
एक तरफ नई सभ्यता
ले रही अगडाइयाँ
दुसरी तरफ खून देने
वाले इन्सान भी।
टेक्नोलॉजी ने पाट दी
भौगोलिक दूरियाँ भी।
वही इंसानो के बीच
पैदा करदी है अथाह दूरियाँ।
चुनोतियाँ ज्यादा
समाधान कम।
एक इन्सान दूसरे के
सर पर पैर रखकर
निकल जाना चाहता।
आपाधापी में उसका
छुट्ता जा रहा है
सहज स्वाभाव॥