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मिरे घर के लो जो घर मुझी को सुपुर्द कर के चले गए / 'रशीद' रामपुरी

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मिरे घर के लो जो घर मुझी को सुपुर्द कर के चले गए
मिरा बार-ए-ग़म न उठा सके तो मुझी पे धर के चले गए

कभी घर हमारे वो आ गए तो लिखा नसीब का देखिये
कोई बात उन से न हो सकी वो ज़रा ठहर के चले गए

जहाँ लुत्फ़-ए-सैर न पा सके न जहाँ का हाल बता सके
जहाँ ज़िंदगी में न जा सके वहाँ लोग मर के चले गए

कोई बात उन से करेगा क्या वो जवाब ले के फिरेगा क्या
उन्हें देख कर जो हवास ही मिरे नामा-बर के चले गए

है सरा-ए-दहर अजब मकाँ जो मुसाफ़िर आ के रहे यहाँ
कभी तीन दिन कभी चार दिन वो ठहर ठहर के चले गए

नहीं आज रंग वो ख़ल्क़ का कभी ये ज़माने का हाल था
हमें सर पे अपने बिठा लिया जो किसी बशर के चले गए

है अदम का सख़्त वो मरहला जहाँ अपना अपना है रास्ता
वो सफ़र नहीं ये जो साथ हम किसी हम-सफ़र के चले गए

तिरे पासबाँ से तिरा पता कभी हम ने पूछा तो ये मिला
कि मकाँ से वो सर-ए-शाम ही कहीं बन-सँवर के चले गए

उन्हें बज़्म-ए-ग़ैर में देख कर कहें क्या ‘रशीद’ कि क्या हुआ
कभी ज़ब्त कर के ठहर गए कभी आह भर के चले गए