Last modified on 5 जुलाई 2016, at 04:49

मुक्ति / हरीशचन्द्र पाण्डे

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:49, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वह पुर्ज़ा चलता रहा ढीला होकर भी
कुछ देर तक कुछ दूर तक

अपने ढीलेपन को बज-बजकर बताता भी रहा
पर गाड़ी की भारी भरकम गौं-गौं में दब गया

ढीलेपन की शुरुआत होती ही ऐसी है
कि शुरू में सबकुछ ठीक-ठाक-सा लग रहा होता है
पर पुर्ज़ा जानता है हाथ से सरकती जाती अपनी सामर्थ्य

डाल से टूट गये हरे पत्ते-सा पड़ा है बोल्ट सड़क पर
किसी मिस्त्री की तेज़ निगाह की दरकार है उसे
या फिर ऐसी आदत की जो किसी भी चीज़ को
कभी बेकार नहीं समझती

मुक्ति नहीं है यों एकान्त में पड़े रहना
भीतरी चूड़ियों के कसाव की संगत में ही है मुक्ति...