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मुझे बाहर निकलने दो / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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पड़ा मैं बन्द जीवन में, मुझे बाहर निकलने दो ।

नया संसार बनता है, नए आधार जिसके सब
नए युग की सजी वेदी, मिलेगा पर्व ऐसा कब ?
खड़ा ललकारता मनुजत्व मेरा, क्यों रुकूँगा तब ?
मिला दूँ तार मन का ज्योति के जलते शिखर से अब ।

पड़ा मैं बन्द जीवन में, मुझे बाहर निकलने दो ।

निकलने क्यों न दोगे ? तोदअ डालू‘ंगा सभी बन्धन
न बन्दिश में रहेगा हथकड़ी-बेड़ी-कसा यह तन ।
मुझे जनता बुलाती है, बुलाता काल-परिवर्तन
बुलाता है मुझे भवितव्य का सुन्दर सुखी जीवन ।

पड़ा मैं बन्द जीवन में, मुझे बाहर निकलने दो ।