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मेरे पुरखे (दो) / भूपिन्दर बराड़

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पहाड़ों-सा गहरा था मेरे पुरखों सा का रंग
बरसों तक इंतज़ार करते करते
धुंधला गयी थी उनकी आँखें

वे उठी धीरे धीरे
जब मैंने दी आवाज़:
सब नहीं लौट पाए बाबा
बस मैं बच निकला हूँ किसी तरह

मैंने सोचा, अभी उठेंगी उनकी बूढी बाहें
अभी मेरे बालों में फिरेंगी उँगलियाँ
मैंने सोचा नहीं था
चुप्पी ने उन्हें पथरा दिया होगा इस कदर

उनके कंधों से परे था
और भी गहरा अँधेरा
मैंने सोचा उसी में होगी बूढी माँ
डरी हुई, चाची और विधवा फूफी से फुसफुसाती हुई
कहाँ हैं वे सब, बाबा?
मैंने सुनी
चुप्पी से ढकी एक सिसकी

ठीक है, मत कहो कुछ
कुछ नहीं पूछूंगा, यूँ भी क्या हक़ है मुझे
बरसों बाद इस तरह बकबक करने का
तुम्हे छोड़ दुनिया जीत लेने का फितूर था मुझे
बहुत तेज़तर्रार समझता था अपने आपको

नहीं बोले कुछ भी मेरे पुरखे
या फिर बोल नहीं पाए कुछ
वे निगल चुके थे
अकेलेपन और चुप्पी के ढेरों पत्थर

फिर भी न जाने क्यों
लौटते हुए मैंने एक हाथ महसूस किया
अपने कंधे पर